वुड पैनल बाजार तीन बातों को लेकर काफी गंभीर है, आयात में वृद्धि, डिमांड में सुस्ती और टिम्बर की उपलब्धता। आयात के मोर्चे पर चीजें सीधी सीधी हैं कि समुद्री भाड़े में कमी आई है, दुनिया भर में अंतरराष्ट्रीय मांग गिरना, मेटेरियल की कीमतों में भी कमी लाने के लिए प्रेरित कर रही है। यह दबाव में रहेगा ही इसलिए एमडीएफ, पार्टिकल बोर्ड और यहां तक कि फर्नीचर उत्पादों में सस्ते आयात की आवक फिर से शुरू हो गई है। इससे भारत में भी आपूर्ति बढ़ेगी और घरेलू बाजारों में दो साल तक की स्थिरता के साथ साथ मार्जिन पर भी असर डालेगा। लेकिन यह याद रखना चाहिए कि भारत में खपत भी अच्छी है और इसलिए आपूर्ति हो रही है।
टिम्बर की उपलब्धता के मोर्चे पर हर जगह मारा मारी है। अब पैनल इंडस्ट्री इस हालत में है कि जहाँ कहीं भी टिम्बर उपलब्ध हो, वहाँ से लाया जा रहा है। मामला सिर्फ माल ढुलाई भाड़ा और क्रय शक्ति रह गई है। रीजनल इफेक्ट एक साल और रहेगा, उसके बाद धीरे-धीरे लकड़ी की उपलब्धता फिर से शुरू हो जाएगी।
टिम्बर की उपलब्धता के मोर्चे पर हर जगह मारा मारी है। अब पैनल इंडस्ट्री इस हालत में है कि जहाँ कहीं भी टिम्बर उपलब्ध हो, वहाँ से लाया जा रहा है। मामला सिर्फ माल ढुलाई भाड़ा और क्रय शक्ति रह गई है। रीजनल इफेक्ट एक साल और रहेगा, उसके बाद धीरे-धीरे लकड़ी की उपलब्धता फिर से शुरू हो जाएगी, लेकिन यह एमडीएफ और पार्टिकल बोर्ड के नये प्लांट से तब तक निर्देशित होता रहेगा और समस्या बनी रहेगी जब तक कि पर्याप्त प्लांटेशन नहीं हो जाता।
लोग हमेशा सबसे ज्यादा चर्चा में रही समस्याओं का समाधान खोजते हैं और स्मार्ट लीडर दूसरों से बहुत पहले इसका रास्ता खोज लेते हैं। अगर टिम्बर की कमी है तो इनकार क्यों करें? क्यों न समाधान ढूंढने में योगदान दें, और प्लांटेशन शुरू करें। दुख की बात यह है कि हमारा वुड पैनल इंडस्ट्री पिछले दो सालों से इसके बारे में बात कर रहा है लेकिन कुछ खास नहीं कर पाया है।
टिम्बर की कमी तब तक बनी रहेगी जब तक इंडस्ट्री के अधिकांश स्टेकहोल्डर प्लांटेशन ड्राइव में अपना योगदान नहीं देते। मुझे अक्टूबर 2023 तक, पंजाब की ओर से थोड़ी उम्मीद दिखाई दे रही है, लेकिन नए लग रहे प्लांट इसकी खपत बढाकर कुछ और वर्षों तक सप्लाई चेन का दम घोंटते रहेंगे, इससे पहले जबतक कि इंडस्ट्री और प्लांटेशन करने वाले आपस में सहयोगी न बन जाए।
डिमांड साइड देखे तो यह सुस्त है, लेकिन मेरा यह भी मानना है कि क्षमता विस्तार और मांग की सुस्ती को स्पष्टता से देखा जाना चाहिए। मांग की तुलना उस समय से नहीं की जानी चाहिए जब यह कोविड के दौरान सबसे ऊँचे स्तर पर थी। क्योंकि यह पेन्टअप डिमांड थी। अब पेंडेंसी खत्म हो गई है, इम्पोर्ट भी वापस आ गया है, कच्चे माल की कीमतें स्थिर हैं यानि आपूर्ति और कमाई की आदतें सामान्य रूप से हो रहे मांग से कहीं ज्यादा बढ़ी हैं। किसी को यह नहीं सोचना चाहिए कि अर्थशास्त्र के नियम गलत हैं, अगर आपूर्ति दोगुनी हो गई है और बाजार उसी दर से नहीं बढ़ रहा है, तो सुस्ती आएगी ही।
मांग धीमी है लेकिन उन लोगों के लिए नहीं है जो लगातार, फोकस्ड हैं और नपे तुले तरीके से विस्तार कर रहे हैं। पिछले अंक में भी, मैंने भारत की विकास गाथा में अपने दृढ़ विश्वास पर जोर दिया था। यह विकास पथ आगे बढ़ता ही रहेगा। वुड पैनल की खपत बढ़ रही है और यह दो अंकों में बढ़ती रहेगी।
सवाल लाभप्रदता, एफिसिएंसी के उपयोग और व्यक्तिगत ब्रांडों के विकास का है और यह सवालों के घेरे में रहेगा क्योंकि यह कंपनी से कंपनी, व्यक्ति से व्यक्ति और लीडर से लीडर के लिए अलग अलग होता है। इसे अब संगठित और असंगठित ग्रोथ के बीच स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। लिए गए निर्णय प्रतियोगी की गतिविधियों को देखकर नहीं लेने चाहिए; वास्तव में इसे तथ्यों को जांच कर और विचार करते हुए लिया जाना चाहिए। मेरा मानना है कि ग्रोथ तो हो रहा है लेकिन यह हरेक कंपनी के लिए अलग-अलग रहने वाला है। आप कहां और कैसे काम कर रहे हैं, यह केवल आपकी पसंद है।
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प्रगत द्विवेदी
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